Sunday, May 10, 2015

'माँ' की पूजा -अर्चना


जला है मेरा, अब दीप विशेष
इसके लौ को यूं ही जलने दो
दियाली बनाई काया की हमने
'रुधिर का तेल' इसमे भरने दो ...
वर्तिका लगी सत्कर्म की इसमे
क्रोध - दंभ इसमे जलने दो
मैं नहीं ला पाया पुष्पों का हार
मन का भाव इसमे रमने दो
जला है मेरा, अब दीप विशेष
इसके लौ को यूं ही जलने दो।
कहाँ सुगंध सुलगाने जाऊँ
राग -द्वेष इसमे जलने दो
लाये हैं साथी नैवेद्य विविध
मन अर्पित मुझको करने दो,
क्यों लाऊं मैं गंगा का जल
मुझे अश्रु स्नेह अर्पित करने दो
नहीं रागिनी कोई आरती की
हृदय राग इसमे भरने दो
जला है मेरा, अब दीप विशेष
इसके लौ को यूं ही जलने दो ।
अनभिज्ञ तंत्र विद्या से हूँ मैं
भाव मंत्र मुझको पढ़ने दो
रोली तिलक लगता हूँ नहीं
शुचिता चन्दन अर्पित करने दो
औरों के जितनी बड़ी नहीं यह
दिव्यता की एक छटा है इसमे
दिग- दिगंत तक दिव्यता को
माँ के स्नेहाशीष को फैलने दो
जला है मेरा, अब दीप विशेष
इसके लौ को यूं ही जलने दो॥

डॉ जयप्रकाश तिवारी

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