Wednesday, August 17, 2011

चकवी की आस आज फिर टूटी


कूक रही है कोयक काली,
संध्या की रक्तिम ये लाली.
ऊपर नभ में घटा घिरी है,
नीचे फैली है - हरियाली.

देखो प्रकृति का खेल निराली,
सुरभित मंद पवन मतवाली.
छाई कपोल में देखो लाली,
तुम छिपे कहाँ हो बनमाली?

कूक पिक की हो गयी बंद,
मिल गया उसे पिया का संग.
जाने क्यों भाग्य उसकी है फूटी?
चकवी की आस आज फिर टूटी.

देखकर तप-त्याग चिरैया की,
तरु ने पत्ते भी त्याग दिया.
लेकिन वह कितना है निष्ठुर,
अब तक न उसे है याद किया.

सुनेगा कौन उसकी फ़रियाद?
न जाने कब से कर रही है याद?
कब छातेगी यह रजनी की बेला?
कब आएगा उज्ज्वल प्रात सवेरा?

8 comments:

  1. प्यारे से शब्द है।

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  2. सुरीले सुन्दर शब्द और सोच

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  3. देखकर तप-त्याग चिरैया की,
    तरु ने पत्ते भी त्याग दिया.
    लेकिन वह कितना है निष्ठुर,
    अब तक न उसे है याद किया....aah chakvi

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  4. कब छातेगी यह रजनी की बेला?
    कब आएगा उज्ज्वल प्रात सवेरा?
    मंगल कामना एक निर्मल मन ही कर सके है , वह प्रतीक्षा भी करता है तो शुभ का, शुभ के लिए / तो हम ,
    एक विद्वत ,शील ,शुभेक्षु हृदय के श्वामी को सम्मान देने के सिवा नमन ही कर सकते हैं , ...../

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  5. प्रकृति के अन - बन निराले !

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  6. सभी पधारनेवाले सहृदय पाठकों और समीक्षकों का हार्दिक आभार. कष्ट तो कोई न कोई सभी के जीवन में है. करना रो यह चाहिए की हमारे अगले कदम से किसी को कष्ट न हो. लेकिन यह बड़ी बात है, इस परिपुष्ट करने के लिए आवश्यक है की पहले अपना ही नहीं दूसरों के भी कष्टों को समझा जाय. दूर किया जाय अथवा दूरकरने की कामना की जाय.

    एक बार पुनः सभी का इस ब्लॉग पर अभिनन्दन और स्वागत.

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  7. शब्द शब्द ....रस में डूबा ....

    anu

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  8. इस ब्लॉग पर अभिनन्दन और स्वागत.

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