Tuesday, June 1, 2010

चिन्तक, चेतना और मूल्य

पूछते हो -
चिन्तक को समाज से
प्रतिदान में मिलता है क्या ?
परन्तु,
चिन्तक को कभी
मान - सम्मान,
मकान - दुकान की
लिप्सा रही है क्या ?


पूछते हो -
चिन्तक समाज को
देता है क्या ?
अरे! चिन्तक
समाज को बनाने,
सवांरने और मिटाने की दवा है.
यही विज्ञान रूप में सिद्धांत
और संतरूप में दुआ है.
चिन्तक समाज को बिन मोल
वह दे देता है जिसे धन
कभी खरीद सकता है क्या?


उसकी पूँजी तो हैं -
उसकी संवेदनाएं;
समाज का दर्द,
प्रकृति की चित्कार,
औचित्य का प्रश्न.
जो ग्रहण करता है वह
अपने ही आस - पास से,
परन्तु लड़ता है;
लोक मंगल के लिए,
जन कल्याण के लिए.


वह ऋणी है -
समाज का, सभ्यता का, .....
संस्कृति का; प्रकृति का,
प्रज्ञान का और विज्ञान का....
वह संतुष्ट है -
संवेदनाओं को पाकर,
आहात होकर.
वह आह्लादित है -
नीलकंठ होने के पथ पर चलकर.
ऐश्वर्यशाली है -
औचित्य के प्रश्न का
समाधान ढूंढकर.


कर्मयोगी है वह,
निठल्ला नहीं,
टुकड़ों पर पलनेवाला
.....कोई पिल्ला नहीं.
कनक और कामिनी...
उसकी कमजोरी नहीं,
इसलिए उसके पास
कोई तिजोरी नहीं.
आखिर वह भूखों
तो मरता नहीं,
कभी खाली पेट सो जाय,
अलग बात है.


सुनकर सभ्यता - संस्कृति के
.......... क्रन्दन को.
प्रकृति के करुण
चित्कार - पुकार को;
चिन्तक की लेखनी
रुक कहाँ पाएगी?
चैन छिन जाएगा,
नींद उड़ जायेगी.
छलक पड़ेंगे उदगार,
गर्जन करेंगे उद्घोष -


सुनो! सुनो!! और सुनो!!!
अरे ओ सभ्य मानव!
प्रगतिशीलता के ध्वजवाहक;
तू प्रगतिशीलता के नाम पर
मूर्खता क्यों कर रहा?
स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में
अंतर क्यों नहीं कर रहा?
धरती माँ की हरि चादर
क्यों हटा रहा?
प्यारी प्रकृति को,
उसकी मधुमय वृत्ति को,
जहरीली क्यों बना रहा?


विज्ञान को वरदान ही
रहने दो, मेरे दोस्त!
इसे मानव जीवन के लिए
अभिशाप क्यों बना रहा?
क्या तू इतना मदान्ध हो गया
कि यह भी नहीं पता;
कि जिस डाल पर बैठा है,
तू उसी को काट रहा.
अब भी समय है - स्वयं चेत
और दूसरों को चेता.स्वयं को
पूर्वार्द्ध का नहीं, उत्तरार्द्ध का
कालिदास और आइन्स्टीन बना.



अरे भाई!
चिन्तक के इन तीरों को
समाज सह लेता है,
पूरा ना सही,
कुछ ना कुछ तो कर लेता है.
चिन्तक के परितोष के लिए,
यही क्या कम है?
अरे! यही तो असली
मान-सम्मान और प्रतिदान है.



चिन्तक न सुविधाभोगी है,
न वेतनभोगी;
वह तो जगत का यार है,
जग से ही उसे प्यार है.
प्रतिदान और अवदान की बात
तो निरा व्यापार है.
और चिन्तक को
व्यापार से नहीं,
अपने दायित्व और
कर्त्तव्य से प्यार है. और
एक चिन्तक के जीवन
और मृत्यु का,
यही मात्र एक आधार है.